हमर उ नैनीताल

nainital-lake-and-greenary पानी से डबाडब भरा विशाल ताल और चारों ओर हरे भरे जंगलों से घिरा शहर नैनीताल। बांज, रयांज, देवदारू और सुरई के पेड़ पहाड़ों में गहरा हरा रंग भरते थे। चीना पीक, स्नो व्यू, लड़ियाकांटा, टिफिन टॉप से रुई के फाहों से बादल निकलते तो लगता नैनीताल का प्राकृतिक दृश्य-चित्र जैसे जीवंत हो उठा है। सुबह-शाम चिड़ियों का कलरव सुनाई देता था। कितना हराभरा था हमारा शहर नैनीताल!

हमारे इसी शहर के निवासी जिम कार्बेट ने 1932 में अपनी पुस्तक ‘माइ इंडिया’ की भूमिका में लिखा था कि हमारे शहर के चारों ओर फैले इन जंगलों में उसने बाघ, तेंदुए, भालू और सांभर और 128 प्रकार के रंग-बिरंगे पंछी देखे थे! 8569 फुट ऊंचे चीना पहाड़ की तीन मील की खड़ी चढ़ाई में घने पेड़ थे, तमाम तरह के रंग-बिरंगे जंगली फूल खिलते थे और पक्षियों का मधुर कलरव गूंजता रहता था। चढ़ाई में मीठे पानी का चश्मा भी था।…पास ही बसे खुर्पाताल के खेतों में भारत का सर्वोत्तम आलू पैदा होता था। चीना पहाड़ की बगल में पश्चिम की ओर देवपाटा की 7991 फुट ऊंची चोटी थी। उसके नीचे की गहरी घाटी शाल और अन्य पेड़-पौधों, बेलों व फूलों से भरी रहती थी।

तीन तरफ पहाड़ों में पेड़ों के बीच कहीं-कहीं लाल और हरे टीन की छतों वाले खूबसूरत मकान। शाम घिरते ही आसमान में लाखों सितारे टिमटिमाने लगते और शहर बिजली के बल्लों से जगमगा उठता। पता ही नहीं लगता था कि कहां से शुरू होकर कहां खत्म होता है आसमान। सितारों और शहर की रोशनियां ताल में झिलमिलाने लगतीं। ताल के जल में जैसे रोशनी का एक और शहर बस जाता। Photograph of Naini Tal, taken by Samuel Bourne in the 1860s.

तल्लीताल और मल्लीताल के बाजारों में सिलसिलेवार लंबी कतारों में सजी दूकानों की रौनक चकित करती थी। दूकानों के ऊपर घर थे जिनके बरामदों में चिकें लटकी रहती थीं। खिड़कियों, बरामदों और चिकों के पर्दे के पीछे से आंखें बाजार की भीड़ को झांकती रहती थीं। टीन की नई-पुरानी छतों पर कपड़े और बड़ियां सूखती रहतीं। कहीं किसी छत पर कोयले के काले गोले सूखते रहते तो छत के किसी कोने पर कोई सुलगती अंगीठी धुंए की सफेद लकीर छोड़ रही होती थी। सर्दियों की गुनगुनी धूप में उन छतों पर महिलाओं की टोली बैठ कर ‘ह्वै दिदी, ह्वै बैंणी’ के सुर में बातें करते-करते स्वेटर के पाट बुन रही होती थीं तो कहीं धूप की ओर पीठ लगाए लड़के-लड़कियां किताबों के पाठ रट रहे होते थे।

सुबह होती और हमारा शहर धीरे-धीरे जागने लगता था। पुराने अखबारों और लकड़ी की पतली फट्टियों से सुलगाई हुई अंगीठियों का धुवां छतों से खरामा-खरामा टहलता हुआ नीचे बाजार और सड़कों की सैर पर निकल आता। किसी मुंडेर पर कोई कव्वा बोल उठता, घर-आंगन में घिनौड़ियां चहकने लगतीं तो कहीं कोई मुर्गा बांग देकर जगाता कि उठो सुबह हो गई है! उजियाला बढ़ता और प्रकृति किसी कुशल छायाकार की तरह पेड़ों, पहाड़ों और मकानों की छवि ताल के ठहरे हुए पानी में उतार लेती। शेर का डांडा के पीछे से सूरज अचानक निकल कर चीना पीक पर धूप की चादर खोलता और उसे नीचे अयारपाटा व डाट तक फैला देता।

सुबह की सैर के शौकीन लोग तेज कदमों से ताल की परिक्रमा करने के लिए निकल पड़ते तो सैलानी मल्लीताल घोड़ा पड़ाव से सपरिवार घोड़ों की पीठ पर सवार होकर दुलकी चाल से ताल का चक्कर लगाते। नैनादेवी मंदिर की घंटियों की टन-टन, टिन…टिन की आवाज दूर तक हवा में गूंज रही होती थी। मंदिर में नियमित रूप से माथा टेकने वाले श्रद्धालु तेजी से उस ओर कदम बढ़ा रहे होते और महिलाएं सिर ढक कर हाथ में पूजा की थाली लिए देवी की पूजा-अर्चना कर रही होतीं।

a-road-to-nainital ठीक नौ बजे शहर में साइरन चीख कर ऑफिस जाने वाले कर्मचारियों और विद्याथियों को समय याद दिलाता था। पहाड़ की ऊंचाइयों पर पैदल चढ़-उतर कर वे अपने ऑफिस व स्कूल-कालेजों की ओर निकल पड़ते। तल्लीताल में डाट से थोड़ा आगे, पाषाण देवी से थोड़ा पहले और मल्लीताल में नैनादेवी के मंदिर के सामने स्विमिंग प्लैंक होते थे जिनसे डाइव करके लोग सुबह ताल में तैरते थे। कर्मचारियों और विद्यार्थियों के ऑफिस व स्कूल कालेज चले जाने के बाद शहर की सड़कों पर बहुत कम लोग दिखाई देते थे। बस, सैलानी लोअर माल पर घुड़सवारी कर रहे होते या डॉट के पास अथवा मल्लीताल बोट हाउस के पास से नाव लेकर घंटे-दो घंटे के लिए ताल की सैर पर निकल जाते। तल्लीताल और मल्लीताल दोनों जगह से हाथ से खींचे जाने हथरिक्शे चलते थे। लोग कहते थे, अंग्रेज उनमें बैठ कर मालरोड पर हवाखोरी किया करते थे। अब या तो उनमें सामान ढोया जाता था या कंबल और टाट का बिना बाज का कोट पहने गरीब हथरिक्शे वाले सैलानियों की भारी-भरकम जिंदा काया को खींचते। उनके पास ही डांडियों की कतार होती थी। यह भी हवाखोरी के काम आती थी। ‘डांडी’ की आवाज सुनते ही चीलों की तरह बैठी वे गरीब आत्माएं सवारी पर झपटतीं और कंधों पर टांग कर आगे बढ़ जातीं। nepali-majdoor

सुबह-सुबह डॉट की ओर से बसों के स्टार्ट होने का जूं जूं का शोर सुनाई देता था और दिन चढ़ने के साथ-साथ ज्यों-ज्यों बसे आतीं, उन पर मेट टूट पड़ते। बस आते ही वे नेपाली कुली नगरपालिका का ऐल्युमिनियम का लाइसेंस दरवाजे और खिड़कियों से भीतर डाल देते। लाइसेंस कुछ इस तरह होता था जोग्या-झामपनी नं. 86। लाइसेंस देकर वे चिल्लाते-हजूर सामान हमको दिन्या छ।’ सामान लेने के लिए उनमें आपस में बड़ी छीना-झपटी होती थी।

लेकिन, शाम ढलने के बाद वे कमाई के युद्ध विराम की घोषणा करके एक हो जाते थे। उनका झुंड डाट पर जमा होकर आग तापता और अपने मुलुक के गीत गाता। फिजा में उनके गीतों के बोल गूंजते थे…कुंजा मिशीरि को न्यवला…वे पोस्ट ऑफिस के बरामदे में एक कतार में एक-दूसरे से सट कर सोते थे। लोग हंसते हुए कहते थे कि रात में उनका हेड मेट कहता है- फरको! और वे सभी एक साथ दूसरी ओर करवट बदल कर सो जाते हैं। मैला, चीकट चूड़ीदार पाजामा, कुर्त्ता, टोपी और फटा पुराना कोट। पचीसों पैबंद। रूखी रोटी व चना-गुड़ खाकर पाई-पाई बचाई पूंजी कमरबंद की भीतरी तहों में दबी रहती। बक्सा-बिस्तरबंद संकरी सीढ़ी से चढ़ाते मेट को मैंने एक बार कहा-‘संभल कर, सामान टूटे नहीं।’ उसका दार्शनिक उत्तर था, ‘सामान को क्या हजूर, आदमी टुटि जान्या छ!’ बीड़ी के गाढ़े धुएं का कस खींच कर 1965 में किसी मेट ने अपना दर्द कुछ इस तरह सुनाया थाः

कुर्त्ता मैइली, धोती मैइली, ध्वे दिन्या कोई छय ना,
परदेशई मां मरि जौंलो, र्वै दिन्या कोई छय ना।

[ अगले अंक में जारी : पढिये नैनीताल में हुई फिल्मों की शूटिंग के बारे में ]

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2 Thoughts to “हमर उ नैनीताल”

  1. यह नैनीताल ही अच्छा था, अब तो नैनीताल जाने का मन भी नहीं करता।

  2. Swalay

    hi , Devendra ji .. very nice artical … Plz join and share some thoughts about Nainital with us.
    http;//www.facebook.com/Nainital

    Regrads
    Swalay

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